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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


पवित्र ईर्ष्या
[9 ]

विनोद इस समय किसी अतिथि के स्वागत के लिए तैयार न थे। विशेषकर यदि अतिथि स्त्री हो तब। अभी-अभी वह विमला को अखिल से न मिलने के लिए तेज बातें कह चुके थे। दूसरे ही क्षण किसी दूसरी स्त्री के साथ, जो विनोद की वैसी ही बहिन हो जैसी विमला अखिल की, विमला के पास जाने में उन्हें कुछ संकोच-सा हुआ। पर वह अंतो को टाल भी तो न सकते थे, वह उसे लिए हुए विमला के पास जाकर जरा कोमल स्वर में बोले, 'विन्नो! यह अंतो राखी बाँधने आई है, इन्हें बैठा लो।'

विमला ने उठकर आदर और प्रेम से अंतो को बैठाया तो अवश्य; पर कुछ अधिक बातचीत न कर सकी अंतो विनोद के ही पास बैठकर इधर-उधर की बातें करने लगी। विमला ने उनकी बातचीत में किसी प्रकार हिस्सा न लिया। यहाँ तक कि उनसे कुछ दूर बैठकर पान बनाने लगी। और दिन होता तो शायद विनोद से अधिक विमला ही अंतो से बातचीत करती, किंतु आज वह बड़ी व्यथित-सी थी, इसलिए चुप रही। उसकी इस उदासीनता से विनोद ने अंतो का अपमान, घर में आई हुई एक स्त्री-अतिथि का अपमान समझा। वे मन-ही-मन चिढ़ उठे । पर कुछ बोले नहीं।

राखी की रस्म अदा होने पर विमला, अंतो और विनोद दोनों के लिए थालियाँ परोस लाई। अंतो ने विमला से भी भोजन करने का आग्रह किया; किंतु तबीयत ठीक न होने का बहाना करके विमला ने भोजन करने से इनकार कर दिया।

अब विनोद भी अपने क्रोध को न सँभाल सके, तिरस्कार-सूचक स्वर में बोल उठे, 'तबीयत क्‍यों ख़राब करती हो, अब भी समय है राखी बाँधने चली जाओ।' अंतो कुछ समझी नहीं, मुस्कुराकर बोली, 'राखी बाँधने कहाँ जाओगी भौजी। चलो खाना पहिले खा लो फिर चली जाना।'

विमला तो कुछ न बोली पर विनोद फिर उसी स्वर में बोले, “तुम क्या जानो अंतो! आदमी तो वह जो इशारे से समझ जाए। आज त्यौहार का दिन और यह जाएँगी अखिलेश के घर उसे राखी बाँधने। जो लोग अपने घर आवेंगे वे कदाचित्‌ दीवारों से बातचीत करेंगे? और फिर क्या अखिलेश को यह घर मालूम नहीं है? चाहते तो आ न सकते थे?'
अंतो कुछ घबरा-सी उठी, बोली, "जाने भी दो विनोद भैया! त्यौहार के दिन गुस्सा नहीं करते ।'

विमला चुपचाप हाथ में सरौता-सुपारी ज्यों-की-त्यों लिए बैठी थी। पान सामने पड़े थे। उसकी आँखों से बरबस आँसू गिरे जा रहे थे। विनोद को विमला का यह बर्ताव बहुत खल रहा था। अंतो की बात के उत्तर में वह फिर उसी क्रोध-भरे स्वर में बोले, 'त्यौहार के दिन गुस्सा तो नहीं किया जाता अंतो, पर रोया जाता है। सो मैं अपनी किस्मत को रोता हूँ। पिता जी ने न जाने कब का बैरनिकाला जो नाहक ही बैठे-बैठाए मेरे गले में यह बला बाँध दी। देख रही हो न ? खाना इसी प्रकार तो खिलाया जाता है! हमारे सामने थालियाँ परोसकर वे आँसू बहा रही हैं; तो हम लोग भी मरभुखे नहीं हैं। खाना दूसरी जगह भी तो खा सकते हैं। कहते हुए विनोद अंतो का हाथ पकड़कर थाली पर से उठ गए।

विमला ने किसी को रोका नहीं। उसकी मानसिक स्थिति पागलों से भी ख़राब थी। उसने राखियों को उठाकर दूर फेंक दिया। फल और मिठाई उठाकर नौकरों को दे दी। माला को मसलकर, दूर फेंककर, वह खाट पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। अखिल का पवित्र प्रेम, उनका मधुर व्यवहार, उन दो नन्हें-नन्हें अबोध बच्चों के द्वारा राखी का अभिनय, एक-एक करके अतीत की सब स्मृतियाँ उसके सामने साकार बनकर खड़ी हो गईं।
आज उसकी वही स्नेहलता, जिसे दो नन्‍हें-नन्हें अबोध बालकों ने अपनी पवित्रता पर आरोपित किया था, तरुण हृदयों ने अपनी दृढ़ता से मजबूत बनाया था, एक मिथ्या संदेह के आधार पर, निर्दयता से कुचली जा रही थी।

विमला काँप उठी। वह पलँग पर उठकर बैठ गई और अपने आप ही बोल उठी, हे ईश्वर! तू साक्षी है। यदि मैं अपने पथ से जरा भी विचलित होऊँ, तो मुझे कड़ी-से-कड़ी सजा देना। पतिव्रत धर्म, स्त्री धर्म तो यही है न कि पति की उचित-अनुचित आज्ञाओं का चुपचाप पालन किया जाए। वह मैं कर रही हूँ। विधाता! पर इतने पर भी यदि मेरी दुर्बल आत्मा अपने किसी आत्मीय के लिए पुकार उठे तो मुझे अपराधिनी न प्रमाणित करना।

इसी समय माँ की भेजी हुई मिश्रानी, फल, मिठाई और मेवा इत्यादि लेकर आईं। विमला भरी तो बैठी ही थी; मिश्रानी को देखते ही बरस पड़ी। अपने क्रोध-भरे स्वर में कहा, मिश्रानी, यह सब क्‍यों ले आई हो? ले जाओ, मैं क्‍या करूँगी लेकर, माँ से कहना मेरे लिए कुछ भेजा न करें; समझ लें आज से विन्ना मर गई।

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